Tuesday, April 26, 2016

मैं और तुम


एक तुम, जो हंसती गाती मुस्कुराती,
कभी रोती तो कभी आंसू बहती,
एक मैं, जो ना कभी बोला ना कभी गाया,
ना कभी हंसा ना मुस्कुराया ,
ना कभी खुश हुआ ना उदास,
बस खोया है अपनी ही किसी शांति में ॥

एक तुम जो शालीमार के बाग़ कि तरह ,
बदलती रंग हर मौसम के साथ ,
एक मैं, बरगत के पेड़ कि तरह,
जिसे ना पतझड़ का डर ना सावन कि ख़ुशी ॥

एक तुम जो निहारती रहती इंद्रधनुष को,
महसूस करती दुनिया के हर रंग को ,
एक मैं जिसके लिए सबकुछ पारदर्शी है ,
जैसे ये दुनिया हवा और पानी बस हो॥

एक तुम जो भागती रही वक़्त कि चादर तले,
मिलती मुसाफिरों से, रूकती सरायो पर,
एक मैं जो रुका रहता जड़ सा स्थिर,
और गुज़रता रहता वक़्त जिसके चारो तरफ से॥

मैं ये नहीं जानता के किसका सफ़र सही है ,
के किसके जीवन के मायने है ,
जानता हूँ तो बस इतना ही ,
के मंज़िल पर हम दोनों को मिलना है ॥