अगर होते अंधड़ , आंधी या तुफान ,
तो मैं कोस भी लेता उस खुदा को ,
अब क्या गिला करू मैं उससे ,
अपने मकान को मैंने अपने हाथो से तोड़ा है ।।
कभी जंहा होती थी महफिले , चहल पहल ,
अब वंहा खंडरो की बस्ती है ,
क्या शिकायते करू मैं उससे ,
अपने शहर को मैंने अपनी मर्ज़ी से छोड़ा है ।।
बहाने तो बहुत है शिकायत करने के ,
पर शिकायतों का फायदा क्या ,
राहे तो सभी उसी मंज़िल पर ही जानी थी ,
मेरा नसीब मैंने अपने हाथो से मोड़ा है ।।
दर्द की कुछ यु हमजोली है मुजसे ,
बिना उसके बड़ा तन्हा लगता है ,
अब तो आह भी नहीं फूटती मेरी ,
वक़्त ने कितनी दफा मेरा हाथ मरोड़ा है ।।
ढूंढ़ते रहते थे हम जिन्दगी का फलसफा ,
जानना चाहते थे हम इसका मकसद ,
जान पाए मायने इसके तभी हम तो ,
जब अंत को हमने शुरुआत से जोड़ा है ।।