Friday, September 2, 2011

क्या रखा है हकीकत में जी कर

जीना सीखा है ख्बवो में रहकर हमने ,
क्या रखा है हकीकत में जी कर ,
खोजते रहते थे जिन्दगी का फलसफा हम भी ,
पाया भी जो उसको तो खुद को खोकर ||

बाटता रहता है जमाना खुशियों की जड़ी बूटी ,
पीना पड़ता है उसको भी गला घोटकर ,
कहते रहते है जमाने से की (मैं खुश हूँ),
क्या पाया है तुमने इतना खुश होकर ||

कुछ फायदा नहीं है उन्हें पुकारने से बार -बार ,
आते नहीं बिछड़े लम्हे वापस लौटकर ||
बस एक बार हकीकत ख्वाब सी लगी  थी मुजह्को,
जब गुज़रे थे वो हमको युही छुकर ||

इसलिए ही कहता हो यारो ख्वाबो मैं जी लो ,
क्या रखा है हकीकत में जी कर ||

5 comments:

Prateek said...

Bahut ki Unmukh kavita dost. Aisa lago mano hum bhi khawbo mein pahunch gaye ho aap ke inn alfazo ko padhkar.:-)

Unknown said...

dhnayvaad ....

Dipesh said...

हम भी कभी ख्वाबो में जिया करते थे
हर लम्हा सेर दो सेर ख्वाब देखा करते थे|
वक़्त की फिर तेज आंधी आई,
ख्वाब सारे चूर हुए,
कुछ ठहर गए, कुछ टूट गए,
अपनी ही धड़कन से दूर हम हो गए |

हकीक़त के धरातल से जब सर टकराया,
आडम्बरो के रसातल में खुद को धसा पाया|
चारो तरफ अपने एक पिंजरा पाया,
ख्वाबो को उसमे सिसकता देखा ||

आंधी थमी तो अपने अन्तहकरण को टटोला,
जिसे समझा था सोना, उसे माटी पाया,
खुशियों का मोल फिर समझ आया,
किसी के आसुओं को मोती तुल्य पाया,

ह्रदय में फिर एक बिजली सी कोंद्धि, मन में एक ख्याल आया,
जीवन में ख्वाब देखे थे, या ख्वाबो में था जीवन जिया,
हकीकत में जी के क्या पाया, हमे तो ख्वाबो ने था जीना सिखाया||

Unknown said...

shandaar ... hum dono is blog ko share kar sakte hai ...

Abhinav said...

PBC ka to theek hai but Dipes ne kaha se maara